Wednesday, December 5, 2012

गीता 
05 दिसंबर  2012

                                        
                                                  नए स्कूल के शुरूआती दिन थे वे। नवीं कक्षा में अमूमन खूब धींगा मस्ती होती थी। हँसते खेलते 8वीं तक की पढाई कर बच्चे नए नए ही हाई स्कूल की देहलीज़ पर आये थे। सो, ये स्वाभाविक ही था। और वे जानते भी तो नहीं थे कि बड़े स्कूल में बच्चों से भी गंभीर होने की उम्मीद की जाती है। अचानक ही कुछ बोल पड़ना और सवालों के झट से जवाब दे देना बिना इस बात की फिक्र किये कि वो जवाब सही है या गलत। जो पसंद आये उसे दाद देना और जो बुरा लगे उसपर मुंह बिचकाना और कुछ ज्यादा ही हो गया नापसंद तो फिर तपाक से कह देना कि भई, ये ठीक नहीं। ऐसा केवल अपने  साथी ही से नहीं बल्कि शिक्षकों से भी। ज़ाहिर है, बालसुलभ चंचलता थी उनमें। दरअसल ये एक ऐसी बात है जिसकी किसी 14-15 साल के बच्चे में बने रहने की उम्मीद पाठ्यचर्या भी करती है। इसे बनाये रखा उच्चतर प्राथमिक शाला के शिक्षकों ने ये शाबासी भी है उनके लिए। वहीँ, नज़ारा एकदम अलग थलग सा था दसवीं में, जहाँ जाते ही ऐसा लगता था जैसे किसी ने कह रखा हो कि अब तुम बच्चे नहीं रहे बड़े (?) हो गए हो। ये सिर्फ कहा गया सा ही नहीं लगता था बल्कि ऐसा लगता था जैसे उन्होंने भी ये मान ही लिया है। न कोई बात न ही कोई हंगामा। मानों उनकी मुश्कें कस दी गयीं हों और ये कह दिया गया हो कि बहुत हो गयी खेल खेल में पढाई। अब ज़रा काम की बात कर लें। मानो काम की बात केवल किताब में मुंह गड़ाकर ही संभव हो। "जनरल प्रमोशन से आयें हैं ये सब, सर! इनके लिए तो आपको हिटलर ही बनना होगा।" मुझे दी गयी आरंभिक नसीहते थीं। और तो और लोग ये कहने से भी नहीं हिचके कि "सर, सिर्फ किसी तरह ये 'पास' हो जाएँ इतना तैयार करा दीजिये इन्हें।" सीखने सिखाने की मेरी सारी अवधारणाएं ध्वस्त होते देख मैं केवल मुस्कुरा ही सकता था, तरस ही खा सकता था खुद पर। मुझे व्याख्याता बनने की ख़ुशी काफूर सी दिखी अपने चेहरे से। पूरे system को मुंह चिढाती दिखाई देती है ये स्थिति। न केवल इसपर कि ये बातें प्रारंभिक शिक्षा के मतलब को ठेंगा दिखाती हैं बल्कि जल्दबाजी में बिना विद्यालय और शिक्षकों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर लिए गए निर्णयों पर भी। पता नहीं क्यों, हम ये बात समझाने के बजाये सरकारी आदेश की तरह करवाने पर तुल गए हैं। मैं यहाँ प्रशिक्षणों में कही बताई उन्ही बातों को उद्धृत कर रहा हूँ जिनका आशय निर्णय सुनाने के बजाये निर्णय तक पहुचाने में मदद की बात कहता है। वो ये भी कहता है कि ज़रुरत पता की जाये और फिर उसके हिसाब से योजनाओं पर निर्णय लिए जाएँ। तो क्या, ये बातें केवल दूसरे के लिए ही हैं? इस प्रश्न का उत्तर खोजने की आवश्यकता भी नहीं महसूस कर रहा मैं। 

                           मेरा लगभग पूरा दिन ही इन बातों के बीच बीतता था। पर वो वक़्त भी मेरे हिस्से में था जिसमे उन बच्चों को पूरी तन्मयता के साथ किताबी उलझनों से बाहर निकलने की जद्दोजहद करते देखता था। और उसमे सफल असफल होने पर आये उनके उन्मुक्त भाव भी होते थे। जो मेरी ऊर्जा के असल स्रोत थे। पर एक बात थी जो इन सब पेंचों से अप्रभावित दिखी। वो थी, उन बच्चों में इतनी थोपी गयी कडाई के बावजूद कुछ अलग करने, या यूँ कहें कि अलग तरह से करने की ललक। मैंने पहली बार विद्यालय जाने के पहले एक परचा तैयार किया था। परचा कहना पता नहीं सही है भी या नहीं पर था वो एक परचा जैसा ही जिसमे मेरे कुछ प्रश्न थे उन बच्चों को जानने पहचानने की गरज से लिखे गए। उन्हें उस पर्चे को लिखना था। मैंने दिए, उनके कक्षा में प्रवेश करते ही एक-एक कर। आश्चर्य का भाव था उनके चेहरों पर और एक प्रश्न भी। बहरहाल, मैं निर्देश देता गया और वो लिखते गए। कुछ बच्चे देरी से आए थे। उन्हें पूरी बात जानने का अवसर नहीं मिला पर संक्षेप में वो भी समझ गए जल्द ही। मैंने 20 मिनटों का समय दिया था। कुल 4 प्रश्न थे, एकदम सरल और सीधे। स्कूल क्यों? स्कूल की गतिविधियों में से पसंद और नापसंद चीज़ें? स्कूल कैसा होना चाहिए? आदि आदि। और उनमे से किसी भी प्रश्न का अपेक्षित उत्तर भी बहुत लंबा और खूब सोचकर लिखने जैसा नहीं था। मैं इंतज़ार कर रहा था और देख रहा था उनकी ओर। यूँ ही जैसे परीक्षा में पर्यवेक्षण कार्य करते वक़्त नज़रें घूमती हैं, बस एकदम वैसे ही। मेरी नज़र बार-बार टिक जाती थी आखिरी छोर पर जहाँ केवल कागज़ के खडखडाने  की आवाज़ भर सुनाई दे रही थी। मुझे लगा, कुछ अलग हो रहा है वहां। एक लड़की दिखाई दी अकेली बैठी हुई। उसकी नज़रें भी बार-बार मुझसे टकरा ही रही थीं। मुझे ये सामान्य ही लगा। पर जब वो लगातार यूँ ही देखने लगी तब मैं उत्सुकतावश गया आखिरी बेंच के नज़दीक। देखा, वहां बैठी वो लड़की उस कागज़ को बार-बार उलट पलट कर देख रही है। पर्चे पर मेरी नज़र उडती सी गयी तो मैंने पाया कि केवल नाम लिखा था। मुझसे रहा नहीं गया, मैंने पूछ ही लिया "कुछ समझ में नहीं आ रहा हो तो मुझे बताओ, मैं तुम्हारी मदद करता हूँ। "मुस्कुराते हुए उस ने मुझे देखा और निर्भीकता से मेरी आँखों में झांकते हुए प्रश्न किया कि "मोला ए कागज पढना सीखाबे का, सर?" कागज़ पर फिर मेरी नज़र गयी वहां नाम लिखा हुआ था 'गीता'.
                                                  

18 comments:

  1. itna marmik
    aur sachchaye
    dil ko chirkar rakh diya hai
    sach main
    aisi shikhsha ki tasveer-
    Umesh Singh Solanki

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  2. sir ye hi kadvi sachiya h jinse hume do-char hona padta h ,,,,


    mere pahle din bhi kuch aise he the padhna likhna to kuch jante h private school ke bache par pitye se students padh sakte h ye sarve manye ,,,,,, j.b. t. (primery teacher ) ko bhi pitye se padhne ke baaten ke jaati h...



    kher aapko blog start karne ka bhter pryas h carry on sir ji ,, this story is very impresive for me......

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  3. sir this comment maid by sheeshpal from gmail id. palreena.jms

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  4. kabhi kabhi sach aise bhi samane ata hai

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  5. Great Writing....in real life also i hv gone through this stage of experiences looking very serious to know the letters n pic...they r very sensitive to learn but didn't get any chance to get education...those guys r very simple n honest....Let us pray to God each n every Human Being must get Education Compulsory...thnx..for sharing...Yogesh ji...

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  6. This experiences r the actual reality of ones life which takes to the right path nd makes us come close close to the students....

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  7. Pande jee it's shocking but it's true. We've to make sure to answer Geeta.Pande jee its bitter thruth but we have to face it.Heart touching keep it up............great!

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  8. योगेश भाई स्कूलों की ये स्थितियाँ सचमुच चिंतित करती हैं। हमें अब अपना ध्यान " शिक्षा क्या" और " शिक्षा में क्या" से हटाकर " शिक्षा कैसे" पर केंद्रित करना होगा।

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    1. धन्यवाद दिनेश जी,
      क्या लगता है आपको ? इसके लिए हमें कौन से उपाय अपनाने चाहिए क्योंकि जिस mental status में हम शिक्षक हैं अभी। वहां से बहार निकलना और शिक्षा के विषय से ऊपर आकर शिक्षा कैसे तक पहुंचना थोडा tough दिखाई देता है।

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  9. nice to see and know you & ur means ek insaan k ander uski bhawnao me kya ho sakta hai ye aise hi baahar-2 nhi jana sakta ur ye bahut saarthak hai. nhi toh aaj k time me ye sochne mahsus krne waqt kahan. really ye read kr jitna achchha feel hua usse kai guna jyada mai ye jaan khus hua ye sb aapke ander ka hai aapne kiya.............. indeed salaam

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  10. Badey dino baad mainey itni sundar hindi padhi. Varna aaj kal mera saamna keval angrezi or tuti futi bambaiya hindi se hi hota hai.

    Shiksha ke jis gambhir samsya ka aapney yahan varnan kiya wo atyant dukhad hai. Aapke jaise jagrut, suljhey huye aur samajhdaar shikshako ki sirf aapkey rajya ko hi nahi samast bharat desh ko zarurat hai.

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  11. बहुत खूब। ये घटना स्कूली शिक्षा की वास्तविता बयाँ करती है। ऊँची कक्षाओं में आकर भी बच्चों से अपेक्षित मूलभूत क्षमताओं (जैसे कि इस किस्से में - पढ़ना-लिखना) का विकास नहीं हो पाता। यह आपके लिए शायद ज़्यादा प्रासंगिक है, क्योंकि आप भी उन बच्चों की तरह - पिछली कक्षा से आए हो। अब आप देख सकते हैं कि छोटी कक्षाओं में शिक्षा की गुणवत्ता के प्रति समूचे शिक्षा तंत्र की उपेक्षा का क्या नतीजा होता है। यह बड़ा सवाल है। मगर मुझे लगता है कि शिक्षा से जुड़े हम जैसे लोगों को इस दिशा में प्रयास करने की ज़रूरत है - खास कर शासन के साथ मिलकर।
    शुभकामना

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  12. बिलकुल ठीक कहते हैं अमित भैया। शासन के सहयोग के बिना या यूँ कहें कि शासन के गंभीर हुए बिना ये संभव दिखाई भी नहीं देता। और ऐसा ही कुछ हम यहाँ बिलासपुर में करने की कोशिश भी कर रहे हैं। नींद से जगाना भी तो है कुछ लोगों को। ;-)

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  13. "एक लड़की दिखाई दी" I replace it by that "एक बिटिया दिखाई दी" बाकी सब सच है.

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  14. आज दुबारा पढ़ने का मन किया|

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  15. This is the real scenario in most of the schools, where you can meet with about more than 50% of the children like that girl you observed. Thanks for a critical classroom observation.

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