Tuesday, December 18, 2012

पञ्च परमेश्वर ....
18 दिसंबर 2012




बात पुरानी है ...करीब चार सालों पहले की। तब मुझे उच्च प्राथमिक शाला (मिडिल स्कूल)में पढ़ाने का अनुभव नहीं था।  बिलासपुर के नज़दीक के एक गाँव में मेरी नयी-नयी पदस्थापना हुई थी। विषय गणित है इसलिए उसका ज़िम्मा मेरा ही रहा। कक्षा दी गयी 7वीं। चूँकि  पिछले लगभग डेढ़ दशक  से छोटे  बच्चों को  'पढ़ा' ही रहा था इसलिए इस वक़्त कोई ख़ास तनाव नहीं था।  लगता था इन्हें भी 'पढ़ा' ही लूँगा। कोई पूर्व तयारी नहीं थी, न ही कोई फिक्र कि कैसे होगा। मन आश्वस्त था कि बस, जैसे पहले चला है वैसे ही अब भी चल जायेगा। और फिर बाकि शिक्षक साथी तो है ही, पूछ लूँगा जो न समझ में आये। ये आम सा कथन है जब भी प्राथमिक या उच्च प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ाने की बात  होती है। सरल सा समझा जाता है ये काम। शायद इसीलिए तो इस काम को करने की कीमत लगभग आधी ही कर दी गई पिछले डेढ़-एक दशक में। और समर्पण, जुझारूपन, कुछ रचने-बनाने की अनिवार्यता बिना कहे ही समाप्त कर दी गई। मुझे तो इसे काम कहने पर भी आपत्ति है। मैं भी इसे एक सरकारी काम ही समझता रहा था उस दौरान। बहुत सारे उन लोगों की तरह जिनके 'शिक्षकीय पेशे' को केवल एक काम भर समझने की बन गई आदत ने ही 'कर्मी' शब्द को रचा,शायद। निर्णय लेने वालों को लगा होगा कि  ये 'काम' तो सस्ते में करवाया जा सकता है। और तभी से शुरू हुआ प्रारंभिक शिक्षा में ज़रूरी शिक्षकीय गंभीरता का पतन।
मैं पहले और आखिरी दिनों के अनुभवों को अपनी स्मृति में एकदम से छपा हुआ पाता हूँ इसलिए भी शायद अनुभवों को रखने की बारी आने पर वही दिन आगे खड़े नज़र आते हैं। पहला ही दिन था वो भी मेरा 7वीं कक्षा के उस गणित के घंटे में। पाठ था, त्रिभुज। बिना तैयारी के कक्षा में जाते समय आदतन मैंने कुछ ऐसा करने की सोची जिससे मुझे कुछ समय मिल जाये और मैं मुख्य बातें जल्दी से पढ़ लूँ। मैंने ऐसा ही किया भी कहा "चलो, ये पहले पन्ने पर लिखे को पढो और बताओ क्या समझ में आया?" वे लगे पढने और मैंने झट से एक किताब उठाकर खुद भी पढना शुरू कर दिया।  मैं इंतज़ार करने लगा और उन सबके पास जा-जा कर इस बात की तस्दीक भी करने लगा कि वे पढ़ भी रहे हैं या नहीं। मामला ये था कि मैं चाहता था कि वे कुछ बातें पढ़कर समझ जाएँ और बाकि रही बात त्रिभुज से जुड़े सवालों को हल करने की तो, वो मैं कर ही रहा था। मैं घूमता रहा, देखता रहा, सुनने की कोशिश भी करता रहा कि वे पढ़ भी रहे हैं या नहीं। पर वे पढ़ ही नहीं पा रहे थे उन शब्दों को। मैंने सोचा शायद मैं सभी तक नहीं पहुच पाया होऊंगा इसलिए समझ नहीं पा रहा लेकिन ऐसा नहीं था। वे सचमुच ही हिंदी के उन शब्दों को पढ़ नहीं पा रहे थे। उनमे से बहुत थोड़े ही थे जो शब्दों को समझ भी पा रहे थे जैसा कि सामान्यतः कक्षाओं में होता है। ये मेरे लिए आश्चर्य की बात थी। क्योंकि इन कक्षाओं में इस बात की उम्मीद मैंने नहीं की थी। प्राथमिक कक्षाओं के तख्ते और उनकी स्लेटें दिखने लगी। और सुनाई देने लगा वो "दो एकम दो ......" का समवेत स्वर। मुझे फिर भी लगा कि शायद मैं ठीक से समझ ही नहीं पा रहा हूँ। मैंने उनमे से कुछ बच्चों को उस पन्ने में लिखी बातों से जुड़े सवाल पूछे फिर भी नतीजा वही निकला। मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। एकदम से ठगा सा महसूस कर रहा था मैं खुद को। हेड मास्टर जी के पास जाने के  अलावा मुझे कोई चारा नहीं दिखा।
 "सर! मैं गणित नहीं पढ़ा पाउँगा " मैंने उनसे कहा डरते डरते। वे बोले "ये क्या कह रहे हो? कौन पढ़ायेगा फिर? और यदि तुम गणित नहीं तो फिर क्या पढ़ाओगे?" मैंने कहा "सर! मैं गणित से पहले इन्हें भाषा पढ़ाना चाहता हूँ। मुझे लगता है गणित ये फिर आसानी से समझ पाएंगे।" थोडी सी झिकझिक के बाद उन्हें मेरी बात जंची और वे मान गए। पर मेरे मन में सवालों का अम्बार लगा हुआ था।
"भाषा कैसे?" "वो तो मैंने कभी पढाई भी नहीं" "कह तो दिया पर क्या गणित पढने के लिए भाषा जाननी ज़रूरी है?" "भाषा की पेचीदगियों में फंसा तो क्या होगा?" आदि। पर उन्हें मनवा लिया था सो करना ही था। मैं लौट आया उस दिन इसी उधेड़बुन में डूबते उतरते। मैंने ठान ही लिया था और लगभग तय कर लिया था कि अगले दो महीनों में इन बच्चों को इतनी भाषा पढना तो सिखा ही दूंगा जो गणित समझने के लिए काफी हो। पर वो काफी कितना हो ये नहीं तय कर पाया था अब तक। अगले दिन से शुरू कर दिया मैंने भाषा के साथ घमासान। पर एक हफ्ते ही में मुझे समझ में आ गया कि ये इतना आसान नहीं जितना दिखाई देता है। ढेर सारे प्रयोग करते करते दो महीनों में मैं केवल अभ्यास के प्रश्नों के लिखने तक का काम ही कर पाया था। और बहुत अच्छी तरह समझ गया था कि ये प्रश्न उत्तरों वाला तरीका कम से कम भाषा तो नहीं सिखा सकता। मेरी समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई थी मुह फाड़े, मुझे हर समय कोसती और अपनी नाकामी याद दिलाती, कचोटती सी। गणित तो मैं पढ़ा ही नहीं पाया था पर भाषा के लिए भी वो 'फेल' वाला प्रमाण पत्र मुझे मिल चूका था।
                                                  हमेशा की तरह एक और दिन आया, मैं लगातार ही सोचता रहता था उन दिनों। शायद ये मौका वोही था जिसकी ज़रुरत आज मैं हरेक शिक्षक के लिए महसूस करता हूँ। जब लगे कि कुछ गलत हो रहा है या यदि इसे गलत न कहना चाहें तो ये भी कह सकते हैं कि वो नहीं हो रहा जो वास्तव में होना चाहिए। मन कुछ बुझा बुझा सा था,  लग नहीं रहा था किसी भी काम में। मामले के इतने गंभीर होने की कल्पना नहीं थी मुझे। कुछ सूझता ही नहीं ऐसे वक़्त। और आसपास के सारे लोग आपको ही देख रहे प्रतीत होते हैं। फब्तियां कसते, उलाहने मारते।
सोचा, एक ब्रेक लिया जाये। मैंने बिना सोचे ही सब बच्चों को बाहर आँगन में बुलाया। सबको गोल घेरे में खड़ा किया और कहा चलो दोहराओ जो मैं गाऊं। "मालती के बच्चे को सर्दी लग गयी ....उसे गरम तेल से मालिश करेंगे" को दोहराने लगे सब। (ये वो गीत है जो हम लोग नाटक की किसी कार्यशाला के शुरू के दिनों में गाते हैं) मुझे अच्छा लगा क्योंकि पिछले कई दिनों से मैंने उन सबको सहमे-सहमे ही बात करते देखा था। जोश बढ़ा  और फिर पूरे डेढ़-दो घंटों तक हमने वही गीत अलग अलग तरह से गiया। कक्षा की ओर लौटते हुए भी वे उसे ही गुनगुना रहे थे। अगले दिन उन्होंने कक्षा में आते ही मुझसे सबसे पहले यही पूछा "सर, आज फेर गाबो ओही गाना ला?" मैं समझ गया था कि  मज़े की शुरुआत हो चुकी है। अब मुझे आगे उस प्लेटफार्म पर काम भर करना था। कभी भी बच्चे की तयारी जाने बिना परोसी गयी चीज़ें शायद उतनी कारगर नहीं हो पाती जितनी होने की हम उम्मीद करते हैं, यहाँ समझ में आने वाली यही एकमात्र बात थी। दरअसल धैर्य के साथ और त्वरित परिणाम की अपेक्षा किये बिना लगातार लगे रहने से ये सीखने का 'प्लेटफार्म' बनाया जा सकता है। "भूख लगने पर ही खाना देना" के फंडे से एक कदम आगे की बात  यानी 'भूख पैदा करना।' तब परोसना आसान हो सकता है, शायद? मन में ये विचार भी था कि कम से कम पढना तो सीख जाएँ बाकि तो ये खुद ही कर लेंगे। या सीखने का मज़ा आने लगे इनको बस इतने से ही आगे बढ़ा जा सकेगा। और इसी मज़े को बढाते रहने और उसमे अपनी पाठ्यगत बातें थोड़ी थोड़ी कर फिट करते रहने का रफ प्लान बनाकर मैं शुरू हो गया। 
                                          तय हुआ कि प्रेमचंदजी की कहानी पञ्च परमेश्वर पर एक नाटक किया जाये। पर खुद के लिए एक शर्त रखी कि कुछ भी हो जाये कहानी में लिखे शब्दों में कोई कांट-छांट नहीं करूँगा। पात्र चयन किये। दो बार पूरी कहानी बोलकर सुनाई। बीच बीच कहानी के पात्रों की तरह बोल कर भी दिखाता था। फिर एक-एक कर के सबको लाइने देता गया साथ ही ये भी बताता गया कि इन्हें बोलना कैसे है। लाईने वही थीं जो कहानी में लिखीं हुई थीं। मैं बोलता जाता वे  दोहराते। शुरू में तो सब के सब मज़े से लाइने याद कर बिलकुल मंजे हुए  कलाकारों की तरह बोलते जाते थे। पर असल परेशानी तब शुरू हुई जब लाइनों की संख्या बढती गयी। अब वे याद नहीं रख पा रहे थे। मुझे ये महसूस तो हो रहा था पर मैं अनजान बना केवल लाइनों पर लाइने दिए जा रहा था। जब ज्यादा होने लगा तो वे मना करने लगे। मैंने कहा "ठीक है पर अगर लाइने देना  बंद कर दूंगा तो नाटक आगे कैसे बढेगा?" वो निरुत्तर हो गए और अनमने से मेरी बात से सहमती जताने लगे। मुझे ठीक नहीं लगा क्योंकि मैं नहीं चाहता कि उनकी इच्छा न हो करने की ऐसा कोई काम उन्हें दिया जाये। मैं इंतज़ार करता रहा। 
 "अच्छा फिर तुम ही बताओ मुझे क्या करना चाहिए?" या "नाटक को आगे कैसे बढ़ाएं?" मैंने पूछा।
"सर! ये कहानी में हमर डायलाक ल लिख के दे दे घर ले याद करके आ जाबो।" उनके इस जवाब पर मुझे जो ख़ुशी हुई उसको बयां नहीं कर सकता। ख़ुशी का कारन भी था कि वे पढने के लिए लाइने मांग रहे थे। यही तो चाहता था मैं और बस ऐसे ही चाहता था।
 

आठवें दिन हमने गाँव के लोगो के सामने नाटक पञ्च परमेश्वर का मंचन किया। 
नौवें दिन मैंने कहानी की घटनाओं पर प्रश्न किये उनसे। जैसे सुलझे हुए उत्तर मिले, वो परिणाम थे इस पूरी प्रक्रिया के। 

 वे पढना सीखने के लिए तैयार थे अब।

                                               


Wednesday, December 5, 2012

गीता 
05 दिसंबर  2012

                                        
                                                  नए स्कूल के शुरूआती दिन थे वे। नवीं कक्षा में अमूमन खूब धींगा मस्ती होती थी। हँसते खेलते 8वीं तक की पढाई कर बच्चे नए नए ही हाई स्कूल की देहलीज़ पर आये थे। सो, ये स्वाभाविक ही था। और वे जानते भी तो नहीं थे कि बड़े स्कूल में बच्चों से भी गंभीर होने की उम्मीद की जाती है। अचानक ही कुछ बोल पड़ना और सवालों के झट से जवाब दे देना बिना इस बात की फिक्र किये कि वो जवाब सही है या गलत। जो पसंद आये उसे दाद देना और जो बुरा लगे उसपर मुंह बिचकाना और कुछ ज्यादा ही हो गया नापसंद तो फिर तपाक से कह देना कि भई, ये ठीक नहीं। ऐसा केवल अपने  साथी ही से नहीं बल्कि शिक्षकों से भी। ज़ाहिर है, बालसुलभ चंचलता थी उनमें। दरअसल ये एक ऐसी बात है जिसकी किसी 14-15 साल के बच्चे में बने रहने की उम्मीद पाठ्यचर्या भी करती है। इसे बनाये रखा उच्चतर प्राथमिक शाला के शिक्षकों ने ये शाबासी भी है उनके लिए। वहीँ, नज़ारा एकदम अलग थलग सा था दसवीं में, जहाँ जाते ही ऐसा लगता था जैसे किसी ने कह रखा हो कि अब तुम बच्चे नहीं रहे बड़े (?) हो गए हो। ये सिर्फ कहा गया सा ही नहीं लगता था बल्कि ऐसा लगता था जैसे उन्होंने भी ये मान ही लिया है। न कोई बात न ही कोई हंगामा। मानों उनकी मुश्कें कस दी गयीं हों और ये कह दिया गया हो कि बहुत हो गयी खेल खेल में पढाई। अब ज़रा काम की बात कर लें। मानो काम की बात केवल किताब में मुंह गड़ाकर ही संभव हो। "जनरल प्रमोशन से आयें हैं ये सब, सर! इनके लिए तो आपको हिटलर ही बनना होगा।" मुझे दी गयी आरंभिक नसीहते थीं। और तो और लोग ये कहने से भी नहीं हिचके कि "सर, सिर्फ किसी तरह ये 'पास' हो जाएँ इतना तैयार करा दीजिये इन्हें।" सीखने सिखाने की मेरी सारी अवधारणाएं ध्वस्त होते देख मैं केवल मुस्कुरा ही सकता था, तरस ही खा सकता था खुद पर। मुझे व्याख्याता बनने की ख़ुशी काफूर सी दिखी अपने चेहरे से। पूरे system को मुंह चिढाती दिखाई देती है ये स्थिति। न केवल इसपर कि ये बातें प्रारंभिक शिक्षा के मतलब को ठेंगा दिखाती हैं बल्कि जल्दबाजी में बिना विद्यालय और शिक्षकों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर लिए गए निर्णयों पर भी। पता नहीं क्यों, हम ये बात समझाने के बजाये सरकारी आदेश की तरह करवाने पर तुल गए हैं। मैं यहाँ प्रशिक्षणों में कही बताई उन्ही बातों को उद्धृत कर रहा हूँ जिनका आशय निर्णय सुनाने के बजाये निर्णय तक पहुचाने में मदद की बात कहता है। वो ये भी कहता है कि ज़रुरत पता की जाये और फिर उसके हिसाब से योजनाओं पर निर्णय लिए जाएँ। तो क्या, ये बातें केवल दूसरे के लिए ही हैं? इस प्रश्न का उत्तर खोजने की आवश्यकता भी नहीं महसूस कर रहा मैं। 

                           मेरा लगभग पूरा दिन ही इन बातों के बीच बीतता था। पर वो वक़्त भी मेरे हिस्से में था जिसमे उन बच्चों को पूरी तन्मयता के साथ किताबी उलझनों से बाहर निकलने की जद्दोजहद करते देखता था। और उसमे सफल असफल होने पर आये उनके उन्मुक्त भाव भी होते थे। जो मेरी ऊर्जा के असल स्रोत थे। पर एक बात थी जो इन सब पेंचों से अप्रभावित दिखी। वो थी, उन बच्चों में इतनी थोपी गयी कडाई के बावजूद कुछ अलग करने, या यूँ कहें कि अलग तरह से करने की ललक। मैंने पहली बार विद्यालय जाने के पहले एक परचा तैयार किया था। परचा कहना पता नहीं सही है भी या नहीं पर था वो एक परचा जैसा ही जिसमे मेरे कुछ प्रश्न थे उन बच्चों को जानने पहचानने की गरज से लिखे गए। उन्हें उस पर्चे को लिखना था। मैंने दिए, उनके कक्षा में प्रवेश करते ही एक-एक कर। आश्चर्य का भाव था उनके चेहरों पर और एक प्रश्न भी। बहरहाल, मैं निर्देश देता गया और वो लिखते गए। कुछ बच्चे देरी से आए थे। उन्हें पूरी बात जानने का अवसर नहीं मिला पर संक्षेप में वो भी समझ गए जल्द ही। मैंने 20 मिनटों का समय दिया था। कुल 4 प्रश्न थे, एकदम सरल और सीधे। स्कूल क्यों? स्कूल की गतिविधियों में से पसंद और नापसंद चीज़ें? स्कूल कैसा होना चाहिए? आदि आदि। और उनमे से किसी भी प्रश्न का अपेक्षित उत्तर भी बहुत लंबा और खूब सोचकर लिखने जैसा नहीं था। मैं इंतज़ार कर रहा था और देख रहा था उनकी ओर। यूँ ही जैसे परीक्षा में पर्यवेक्षण कार्य करते वक़्त नज़रें घूमती हैं, बस एकदम वैसे ही। मेरी नज़र बार-बार टिक जाती थी आखिरी छोर पर जहाँ केवल कागज़ के खडखडाने  की आवाज़ भर सुनाई दे रही थी। मुझे लगा, कुछ अलग हो रहा है वहां। एक लड़की दिखाई दी अकेली बैठी हुई। उसकी नज़रें भी बार-बार मुझसे टकरा ही रही थीं। मुझे ये सामान्य ही लगा। पर जब वो लगातार यूँ ही देखने लगी तब मैं उत्सुकतावश गया आखिरी बेंच के नज़दीक। देखा, वहां बैठी वो लड़की उस कागज़ को बार-बार उलट पलट कर देख रही है। पर्चे पर मेरी नज़र उडती सी गयी तो मैंने पाया कि केवल नाम लिखा था। मुझसे रहा नहीं गया, मैंने पूछ ही लिया "कुछ समझ में नहीं आ रहा हो तो मुझे बताओ, मैं तुम्हारी मदद करता हूँ। "मुस्कुराते हुए उस ने मुझे देखा और निर्भीकता से मेरी आँखों में झांकते हुए प्रश्न किया कि "मोला ए कागज पढना सीखाबे का, सर?" कागज़ पर फिर मेरी नज़र गयी वहां नाम लिखा हुआ था 'गीता'.
                                                  

Friday, October 26, 2012

वो आखिरी दिन ....
20-10-2012, शनिवार

                                                14 सालो बाद एमएससी करने के बाद इस बात की उम्मीद होने लगी थी की शायद अब 'बड़े ' बच्चों को पढ़ाने का मौका लगेगा। शायद इसलिए क्योंकि पहली पदस्थापना वाले स्कूल से ही सेवानिवृत्त होना शासकीय शिक्षकों के लिए सामान्य बात थी। पिछले सालो में चली प्रमोशन की बयार ही थी जिसने उम्मीद जगाई रखी। खूब सारी उलझनों, दुविधाओं, 'सरकारी' प्रक्रियात्मक पचड़ों के बाद आखिर वो आदेश मिल ही गया जो यह कहता था कि आप व्याख्याता बना दिए गए हो।आदेश मिलते ही कुछ  सोचने-बुनने लगा दिमाग। नए काम का उत्साह तो था पर साथ ही एक घबराहट भी थी कि जिन जटिल गणितीय संक्रियाओं को पढ़ते-पढ़ाते लम्बा वक्त गुज़र चूका है उनसे फिर से तालमेल बैठा पाउँगा या नहीं? उन 'बड़े' बच्चों के बीच ढल पाऊंगा या नहीं? उन्हें जैसी ज़रुरत होती है एक शिक्षक की उसे पूरा कर पाऊंगा या नहीं? उच्चतर माध्यमिक शालाओं के रसूख के बारे में काफी कुछ देख-सुन रक्खा था। वहाँ की नीरस processes का नज़दीक से कुछ अनुभव भी था। पर सुनने देखने और प्रत्यक्ष अनुभव में होने वाले स्वाभाविक अंतर से नावाकिफ भी नहीं था। इसलिए भी ढेर सारे प्रश्न दिमाग में थे। पिछले 4-5 वर्षों से जो समझ प्राथमिक शिक्षा और शिक्षण पर बन पाई थी वो यहाँ लागु हो पाएगी की नहीं यह एकमात्र बड़ी बात बन कर दिमाग में कौंध रही थी। उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों के पढ़ाने के तरीके, वहां की मूल्यांकन की प्रक्रिया, 10 वी - 12 वी  कक्षाओं के विषयों का स्तर जैसी बातें मन पर दबाव बढाती ही जा रही थी। कैसे होंगा क्या होगा जैसी प्रश्नोत्तरी में डूबता उतरता मस्तिष्क कुछ और सोच ही नहीं पाया था। उनके बारे में तो बिलकुल भी नहीं जिन्हें छोड़कर जाने का समय  बस आ ही पहुंचा था। 
 रोज़ ही की तरह मै  निकला था स्कूल के लिए उस दिन। रास्ते में मिलते गए सारे मार्गदर्शक चिन्ह यथावत थे, कोई नयापन नहीं था उनमे, मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा। सब कुछ पूर्ववत गतिशील, स्थापित था। अपने अपने कार्यों में व्यस्त वातावरण में कोई भी बात ऐसी नहीं थी जो कुछ एहसास कराये। पर रास्ता थोडा लम्बा और बोझिल सा लग रहा था। मन में आया भी, पर ध्यान नहीं गया। मैं चलता रहा बस चलता ही रहा। सड़कों के गड्ढों को कोसने और उनसे बचने की असफल कोशिश करते स्कूल पंहुचा तो वही नमस्ते सर, गुड मोर्निंग सर के चिरपरिचित शोर ने स्वागत किया और वही फिर साथियों के व्यवस्थागत निर्देशों वाले शोर में बदलता चला गया। रजिस्टर खोलकर हाथ जैसे ही हस्ताक्षर करने को बढे पीछे से अमिता की आवाज़ आई सर last day है आज आपका हमारे स्कूल में। टीस सी हुई,शब्द बींधते चले गए ह्रदय को। मैं थोडा पीछे हटा पलट कर देखा अमिता की ऑंखें रुआंसी दिखीं। घूम कर देखा तो सारे लोग मुझे ही देख रहे थे टकटकी लगा कर। वे भी जिनकी भलाई थी मेरे जाने में और वे भी जिनके लिए शायद मेरा वहाँ होना ही पर्याप्त था। मुझे अब महसूस होने लगा था कि ये वाकई आखिरी दिन के एहसास हैं। वो रास्ते का बोझिलपन अब फिर याद आ गया मुझे। अब तो वो सामान्य वातावरण भी शायद कोई बात कोई जज़्बात छिपता सा लग रहा था, शायद? दस्तखत करके मैं अपने रोज़मर्रा के सामान के लिए मुडा तो अमिता की आवाज़ फिर आई आज भी पढ़ाएंगे क्या सर? मुझे लगा ये क्या कोई ऐसा वक्त है जब मुझे पढ़ाने से अवकाश मिलना चाहिए? मैं फिर भी 6वी कक्षा में चला गया। शायद बच्चों को भी इस बात की सूचना दे दी गई थी की ये आखिरी दिन है। मुझे कुछ लग रहा था मन में ये देखकर कि खीझ मचाने वाले स्वर नदारद हैं आज। गंभीर बच्चे बहुत कम ही देखे हैं मैंने तो ये अस्वाभाविकता ध्यान खिंचेगी ही। मैंने उनसे बात करना शुरू किया पर कोई जवाब नहीं न ही कोई प्रश्न या फिर कोई 'मस्ती'. सब कुछ शांत-शांत सा। बिलकुल असहज कर देने वाला माहौल। मुझसे सहा नहीं गया तो मैं पूछ ही बैठा " क्यों भाई! आज पढने का mood नहीं क्या? सबने एक साथ कहा "नहीं sssssss ". मैंने तत्काल किताब को बंद किया और उस जगह से अलग हो गया। सोचने लगा कि व्यर्थ ही कहते हैं लोग कि ये बच्चे सोचते भी नहीं। मैंने मन ही मन कहा खुद से कि ये न केवल सोचते हैं बल्कि गहराई से महसूस भी करते हैं। और वही वो सारे 11/12 साल के बच्चे खुद भी कर रहे थे और मुझे भी महसूस करा रहे थे। मैंने शायद पहली ही बार महसूस किया था उनसे अलग होने का दुःख। और अब मेरा भी गला भर आया था। पूरा का पूरा समय और घटनाएं  एकदम lightening speed से घूम गयी मेरे दिमाग में recap की तरह। और वहां बिताये 4 साल मेरी आँखों को नम कर गए मैं तो रो ही पड़ा था। मुझे आंसू पोछता देख बच्चे नज़दीक आये और लिपट गए मुझसे और फिर वो हुआ जिसके होने की कल्पना मैंने कभी नहीं की थी। ऐसे ग़मगीन हो रहे थे सारे जैसे मैं अब उनसे कभी भी नहीं मिलने वाला हूँ। हांलांकि यह सच ही था। 'तरक्की' की दौड़ पता नहीं मुझे उन मासूमों की याद दिलाएगी भी या नहीं। मैं दिलासा देता रहा उनको की "अरे घबराते क्यों हो मैं शहर छोड़कर थोड़े ही जा रहा हु। जब चाहूँगा मिलने आ जाऊंगा।" पर मेरा मन ही जानता था इस बात की सच्चाई। न मुझे समय मिलने वाला है न वो ही आ पाएंगे। दुःख उनका एकदम वास्तविक था सीधे ह्रदय से निकला, निष्पाप- निष्कपट। पुरूस्कार दिया था उनोने मुझे। और उस पुरूस्कार का भागी मैं बना हूँ ये एहसास आते ही मैं फफक कर रो पड़ा था। अपने शिक्षक होने पर एक बार फिर मुझे फख्र हुआ था। किलकारियों की जगह पूरे स्कूल में बच्चों की सिस्कारियां गूँज रही थी। वे रो रहे थे मेरे स्कूल छोड़कर जाने के दुःख में। "आप खुश होकर मिठाई बाँट रहे हैं क्या? मैं नहीं खाऊँगी क्योंकि ये मेरे लिए दुःख की बात है।" अंशु ने कहा जब मैं चाकलेट का डिब्बा लेकर उसके सामने पहुंचा। मेरा ह्रदय रो पड़ा उस वक्त उसकी बात सुनकर। अपने शिक्षक के प्रति ये भाव उनके मन में हैं ये जानकर वो आखिरी दिन मेरी स्मृति में स्थापित हो गया।
 "आपकी बहुत याद आएगी सर!" जाते जाते समय उनके बोले गए ये शब्द अभी भी कौंध रहे हैं मन और मस्तिष्क में। मैंने कहा "मैं भी नहीं भूल पाउँगा तुमको।"