Tuesday, October 8, 2013

आप बीती 
Oct 08, 2013
                                                                                                                                                                                                                                                                                                   
                 समझ बढ़ गयी तो फिर समझाना आसान हो जाता है, पिछली कुछ घटनाओं से मेरा ये भ्रम तो टूट ही गया है। किसी का कहा उसी समय समझ में आ भी जाये तो वो लम्बे समय तक रहेगा इसकी कोई गारंटी नहीं। हाथ-पैर, दिमाग, सोच कुछ तो चलाना ही होगा।
                              किसी ने  रीडिंग कार्नर कहा तो कोने में एक तार बाँध दी और टांग दी कुछ पुरानी बेमतलब की किताबें जिन्हें पढना भी जरूरी है इसकी कोई फिक्र नहीं, गतिविधि/खेल कराना है तो बस वही तीन चार घिसे पिटे जुमले दोहरा दिए या  ट्रेनिंग में कराया कोई काम करा दिया। मूल्यांकन की नई प्रणाली पर बात हुई तो कहने लगे पुराना ही ठीक था क्योंकि नए पे कुछ करना पड़ता ।  बिना किये तो बस बोर्ड की परीक्षाओं में ही संभव था।  अब इस हेल्थ कार्नर को ही ले लीजिये।  ये नज़दीक की ही एक प्राथमिक शाला का नज़ारा है।  आदेश ये भी संकुल का ही था जो राज्य से चला था और विभिन्न जिम्मेदार हाथों से होता हुआ मास्साब तक पहुंचा था। राज्य का मानना था कि बच्चों की स्वस्थता बनाये रखने का कोई न कोई उद्यम शाला में तो होना ही चाहिए।  सो, की बोर्ड के बटन खटखटाए प्रिंटर की चरचराहट हुई और लो जी, ये हाजिर।  फतवा जारी हो गया 'हेल्थ कार्नर ' का। वैसे कक्षा के एक कोने में आईना टांगने से हेल्थ कितनी सुधरेगी इसका तो पता नहीं पर शरीर (चेहरे) के हेल्थी पन पर  निगाह ज़रूर रखी जा सकती है।  लगे हाथ जुल्फें संवारने का अवसर मुफ्त है।  
                                                      मसला इग्नोर किया जा सकता है क्योंकि और भी महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं विचार करने के लिए।  फिर सरकारी स्कूल जगत  में कोई ख़ास फर्क पड़ता भी नहीं मास्साब के द्वारा लिए गए इस प्रकार के इण्टरप्रिटेशन से। पर आदेश देने वाला हेल्थ्फुल पर्सन भी जब आईने में अपनी लटें संवार कर निकलता चले तब थोड़ी सी दिक्कत है।  फिर लगता है कि संवाद जैसा कुछ होता ही नहीं इस विभाग में।  किसी ने कहीं से कुछ सुना, कुछ समझा, थोडा और सोचा फिर उसमें कुछ और सोचें जुडीं, एक थोट्फ़ुल(?) मजमून बनाया और थमा दिया ऐसे हाथों में जिसके पास सोचना है की बाध्यता ही नहीं।  किसने क्या समझा कितना समझा ये तो छोड़ ही दीजिये, इसकी तक फिक्र नहीं कि पढ़ा भी या नहीं । बस कागज़ काले होते चले जाएँ और वो हाथ दर हाथ सरकते चले जाएँ।  केवल फाइनल कागज़ की कालिख ही तो पढ़ी जायेगी न? 
इस साल असंख्य विद्यालयों में असंख्य कार्यक्रम शुरू हुए।  जैसे अभी अभी हमने शिक्षा को अधिकार बनाते हुए परीक्षण के स्थान पर आकलन की पैरवी की।  ये आदेश भी बड़ी तेजी से निकला और  शिक्षकों के हाथों में पहुंचा था।  पर उस मजमून के अनगिनत अर्थ (अनर्थ) आप साक्षात् देख सकते हैं सुबह १०:३० से लेकर ४:३० तक।  कहीं भी कभी भी केवल रविवार और छुट्टी के दिनों को छोड़कर।  
          करते रहने और करते करते कुछ नया कर जाने की अपार संभावनाओं को भी ख़त्म कर देने की मानसिकता इन बहुमूल्य योजनाओं को मरणासन्न अवस्था में लाकर पटक चुकी है।  ईको क्लब, बहुकक्षा बहुस्तरीय शिक्षण, योग शिक्षा और ना जाने कितना कुछ। हमारे गाँव के बच्चे या तो इनके किस्से ही सुनते हैं या फिर इनके भग्नावशेषों से खेलते हैं बस।  दोष किसका ? ये शायद अवांछनीय प्रश्न है, मेरे हिसाब से।  क्योंकि मेरा प्रश्न है दोषी कौन नहीं ? दरअसल हम सब।  सब में वे भी शामिल हैं जो इस प्रपंच में प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं हैं। इन्हें लागू करने के तरीकों में थोडा बहुत सुधार करने से शायद कोई हलचल दिखाई दे। केवल आदेश भेजकर ये मान लिया जाना कि बस हो गया काम वाली सोच के दायरे को बढाकर उसमें काम सिखाना, प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा उसे युक्तिसंगत साबित करना, जिन शिक्षकों के जिम्मे इसे दिया जाना है उनकी इच्छा जगाना, उनके तर्कों का समाधान कर उन्हें मन से इस जिम्मेदारी के निर्वहन के लिए तैयार करना जैसे कुछ इनपुट्स डालकर शायद कुछ बात बनाई जा सके।  


                                                                 औपचारिक प्रशिक्षणों के तरीकों से ये कितना संभव है इसपर ज्यादा बातें नहीं क्योंकि  उन प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थिति से गैरशिक्षकीय जगत भी वाकिफ है। इस मुद्दे से सबकी सहमति होगी ही कि अधिकतर प्रशिक्षण हमें कक्षागत क्रियाकलापों से दूर ले जाते दिखाई पड़ते हैं।  
                                     समझदार, विचारवान, नवाचारी, कुशल, सिद्धहस्त, हुनरमंद, प्रगतिशील, एडवांस, हाईटेक, चतुर और बुद्धिमान लोगों से लबालब कुनबे में स्वीकार्यता तो होगी ही इस वांछित नज़रिए की। 
भई, नाउम्मीद नहीं हूँ मैं।