Friday, October 26, 2012

वो आखिरी दिन ....
20-10-2012, शनिवार

                                                14 सालो बाद एमएससी करने के बाद इस बात की उम्मीद होने लगी थी की शायद अब 'बड़े ' बच्चों को पढ़ाने का मौका लगेगा। शायद इसलिए क्योंकि पहली पदस्थापना वाले स्कूल से ही सेवानिवृत्त होना शासकीय शिक्षकों के लिए सामान्य बात थी। पिछले सालो में चली प्रमोशन की बयार ही थी जिसने उम्मीद जगाई रखी। खूब सारी उलझनों, दुविधाओं, 'सरकारी' प्रक्रियात्मक पचड़ों के बाद आखिर वो आदेश मिल ही गया जो यह कहता था कि आप व्याख्याता बना दिए गए हो।आदेश मिलते ही कुछ  सोचने-बुनने लगा दिमाग। नए काम का उत्साह तो था पर साथ ही एक घबराहट भी थी कि जिन जटिल गणितीय संक्रियाओं को पढ़ते-पढ़ाते लम्बा वक्त गुज़र चूका है उनसे फिर से तालमेल बैठा पाउँगा या नहीं? उन 'बड़े' बच्चों के बीच ढल पाऊंगा या नहीं? उन्हें जैसी ज़रुरत होती है एक शिक्षक की उसे पूरा कर पाऊंगा या नहीं? उच्चतर माध्यमिक शालाओं के रसूख के बारे में काफी कुछ देख-सुन रक्खा था। वहाँ की नीरस processes का नज़दीक से कुछ अनुभव भी था। पर सुनने देखने और प्रत्यक्ष अनुभव में होने वाले स्वाभाविक अंतर से नावाकिफ भी नहीं था। इसलिए भी ढेर सारे प्रश्न दिमाग में थे। पिछले 4-5 वर्षों से जो समझ प्राथमिक शिक्षा और शिक्षण पर बन पाई थी वो यहाँ लागु हो पाएगी की नहीं यह एकमात्र बड़ी बात बन कर दिमाग में कौंध रही थी। उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों के पढ़ाने के तरीके, वहां की मूल्यांकन की प्रक्रिया, 10 वी - 12 वी  कक्षाओं के विषयों का स्तर जैसी बातें मन पर दबाव बढाती ही जा रही थी। कैसे होंगा क्या होगा जैसी प्रश्नोत्तरी में डूबता उतरता मस्तिष्क कुछ और सोच ही नहीं पाया था। उनके बारे में तो बिलकुल भी नहीं जिन्हें छोड़कर जाने का समय  बस आ ही पहुंचा था। 
 रोज़ ही की तरह मै  निकला था स्कूल के लिए उस दिन। रास्ते में मिलते गए सारे मार्गदर्शक चिन्ह यथावत थे, कोई नयापन नहीं था उनमे, मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगा। सब कुछ पूर्ववत गतिशील, स्थापित था। अपने अपने कार्यों में व्यस्त वातावरण में कोई भी बात ऐसी नहीं थी जो कुछ एहसास कराये। पर रास्ता थोडा लम्बा और बोझिल सा लग रहा था। मन में आया भी, पर ध्यान नहीं गया। मैं चलता रहा बस चलता ही रहा। सड़कों के गड्ढों को कोसने और उनसे बचने की असफल कोशिश करते स्कूल पंहुचा तो वही नमस्ते सर, गुड मोर्निंग सर के चिरपरिचित शोर ने स्वागत किया और वही फिर साथियों के व्यवस्थागत निर्देशों वाले शोर में बदलता चला गया। रजिस्टर खोलकर हाथ जैसे ही हस्ताक्षर करने को बढे पीछे से अमिता की आवाज़ आई सर last day है आज आपका हमारे स्कूल में। टीस सी हुई,शब्द बींधते चले गए ह्रदय को। मैं थोडा पीछे हटा पलट कर देखा अमिता की ऑंखें रुआंसी दिखीं। घूम कर देखा तो सारे लोग मुझे ही देख रहे थे टकटकी लगा कर। वे भी जिनकी भलाई थी मेरे जाने में और वे भी जिनके लिए शायद मेरा वहाँ होना ही पर्याप्त था। मुझे अब महसूस होने लगा था कि ये वाकई आखिरी दिन के एहसास हैं। वो रास्ते का बोझिलपन अब फिर याद आ गया मुझे। अब तो वो सामान्य वातावरण भी शायद कोई बात कोई जज़्बात छिपता सा लग रहा था, शायद? दस्तखत करके मैं अपने रोज़मर्रा के सामान के लिए मुडा तो अमिता की आवाज़ फिर आई आज भी पढ़ाएंगे क्या सर? मुझे लगा ये क्या कोई ऐसा वक्त है जब मुझे पढ़ाने से अवकाश मिलना चाहिए? मैं फिर भी 6वी कक्षा में चला गया। शायद बच्चों को भी इस बात की सूचना दे दी गई थी की ये आखिरी दिन है। मुझे कुछ लग रहा था मन में ये देखकर कि खीझ मचाने वाले स्वर नदारद हैं आज। गंभीर बच्चे बहुत कम ही देखे हैं मैंने तो ये अस्वाभाविकता ध्यान खिंचेगी ही। मैंने उनसे बात करना शुरू किया पर कोई जवाब नहीं न ही कोई प्रश्न या फिर कोई 'मस्ती'. सब कुछ शांत-शांत सा। बिलकुल असहज कर देने वाला माहौल। मुझसे सहा नहीं गया तो मैं पूछ ही बैठा " क्यों भाई! आज पढने का mood नहीं क्या? सबने एक साथ कहा "नहीं sssssss ". मैंने तत्काल किताब को बंद किया और उस जगह से अलग हो गया। सोचने लगा कि व्यर्थ ही कहते हैं लोग कि ये बच्चे सोचते भी नहीं। मैंने मन ही मन कहा खुद से कि ये न केवल सोचते हैं बल्कि गहराई से महसूस भी करते हैं। और वही वो सारे 11/12 साल के बच्चे खुद भी कर रहे थे और मुझे भी महसूस करा रहे थे। मैंने शायद पहली ही बार महसूस किया था उनसे अलग होने का दुःख। और अब मेरा भी गला भर आया था। पूरा का पूरा समय और घटनाएं  एकदम lightening speed से घूम गयी मेरे दिमाग में recap की तरह। और वहां बिताये 4 साल मेरी आँखों को नम कर गए मैं तो रो ही पड़ा था। मुझे आंसू पोछता देख बच्चे नज़दीक आये और लिपट गए मुझसे और फिर वो हुआ जिसके होने की कल्पना मैंने कभी नहीं की थी। ऐसे ग़मगीन हो रहे थे सारे जैसे मैं अब उनसे कभी भी नहीं मिलने वाला हूँ। हांलांकि यह सच ही था। 'तरक्की' की दौड़ पता नहीं मुझे उन मासूमों की याद दिलाएगी भी या नहीं। मैं दिलासा देता रहा उनको की "अरे घबराते क्यों हो मैं शहर छोड़कर थोड़े ही जा रहा हु। जब चाहूँगा मिलने आ जाऊंगा।" पर मेरा मन ही जानता था इस बात की सच्चाई। न मुझे समय मिलने वाला है न वो ही आ पाएंगे। दुःख उनका एकदम वास्तविक था सीधे ह्रदय से निकला, निष्पाप- निष्कपट। पुरूस्कार दिया था उनोने मुझे। और उस पुरूस्कार का भागी मैं बना हूँ ये एहसास आते ही मैं फफक कर रो पड़ा था। अपने शिक्षक होने पर एक बार फिर मुझे फख्र हुआ था। किलकारियों की जगह पूरे स्कूल में बच्चों की सिस्कारियां गूँज रही थी। वे रो रहे थे मेरे स्कूल छोड़कर जाने के दुःख में। "आप खुश होकर मिठाई बाँट रहे हैं क्या? मैं नहीं खाऊँगी क्योंकि ये मेरे लिए दुःख की बात है।" अंशु ने कहा जब मैं चाकलेट का डिब्बा लेकर उसके सामने पहुंचा। मेरा ह्रदय रो पड़ा उस वक्त उसकी बात सुनकर। अपने शिक्षक के प्रति ये भाव उनके मन में हैं ये जानकर वो आखिरी दिन मेरी स्मृति में स्थापित हो गया।
 "आपकी बहुत याद आएगी सर!" जाते जाते समय उनके बोले गए ये शब्द अभी भी कौंध रहे हैं मन और मस्तिष्क में। मैंने कहा "मैं भी नहीं भूल पाउँगा तुमको।"




8 comments:

  1. एक संवेदनशील और कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक के उदृगार। ऐसी विदाई सबको नसीब नहीं होती पांडेय जी। आपके भीतर एक गुणी शिक्षक है जो बच्चों के हित में सतत सोचता रहता है। आपने ब्लाग की शुरूआत ही एक ऐसे लेख से की है जो आपके शिक्षकीय व्यक्तित्व को उभारता है। बहुत अच्छा लगा पढ़कर । आपके कोमल हृदय का पता देने वाले ऐसे ही लेखों का ब्लाग जगत में स्वागत रहेगा।

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    1. dhanyavaad Gautam ji. Ishwar ki daya rahi to apni rah pakadkar chalta rahunga.

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  2. shabdo main is bhavna ko bandhna asambhav hai..aap ki koshish bahut hi aachi hai lekin main feel kar sakta hu ki vastvikta is se kahi jyada samvedan sheel rahi hogi...

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  3. Hi! Welcome to your own blog. I look forward to some good content.

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  4. स्‍वागत और शुभकामनाएं, सिलसिला बनाए रखें.

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  5. Ji Rahul sir, zaroor. Aapki dikhai raah pe chalte rahenge.

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  6. किसी शिक्षक का लेखन अनेक तरह से उपयोगी होता है - साथी शिक्षकों के लिए और शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले अन्य समूहों व व्यक्तियों के लिए भी। दुखद वास्तविकता यह है कि भारत में शिक्षक लिखते बहुत कम हैं - एकदम न के बराबर। इस दृष्टि से आपके लेखन का स्वागत है। मैं आशा करता हूँ कि आप यह सिलसिला जारी रखेंगे।
    शुभकामना

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  7. A good start. Please continue. Never stop it. My best wishes are with you

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